बायइन्विटेशन / ये जेएनयू है इसे थमना नहीं आता...बढ़ते रहना ही इसकी हस्ती है : प्रो. केएल शर्मा

मैंने 32 सालों तक (1972 से 2004) तक जवाहर लाल विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में अध्यापन कार्य किया। वार्डन से लेकर रेक्टर (प्रो.वीसी) के पदों पर रहा और प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन किया। कभी आज जैसे हालात नहीं हुए। हां, 1983 में स्थितियां गंभीर हुईं थीं। लेकिन उस स्थिति में भी हिंसा नहीं हुई। पुलिस कार्रवाई की प्रतिक्रिया में कुछ वाहनों को नुकसान पहुंचाया गया। सैकड़ों छात्रों को जेल भी जाना पड़ा था। हालांकि उससे बाद जेएनयू में एक नया संवाद शुरू हुआ। प्रवेश के नियम बदले गए...आखिरकार जेएनयू फिर पटरी लौटा।  



जेएनयू उदार विश्वविद्यालय है। यहां उदारता का आशय खुलापन है। उदारता के अभाव में ही जकड़न पनपता है। जेएनयू विद्यार्थी और अध्यापक केन्द्रित संस्था है। कुलपति और प्रशासन विद्यार्थी व अध्यापकों के संवर्धन में सहायक होते हैं। सच कहूं तो 1972 से 2004 तक का जो स्वर्णिम अवसर था अब लुप्त सा प्रतीत हो रहा है। इन सब के बाद भी जेएनयू की विशिष्ट अस्मिता है। हालांकि देश की वर्तमान शासकीय वैचारिक स्थिति माहौल को दूषित कर रही है।  5 जनवरी को 100 नकाबपोशों ने कुछ विद्यार्थियों को पीटा। 36 विद्यार्थी घायल हुए। छात्रसंघ अध्यक्ष आइशी घोष और भूगोल के प्रोफेसर को भी पीटा गया। जेएनयू की एंबुलेंस को बाहर नहीं जाने दिया गया और एम्स की एंबुलेंस को कैम्पस में नहीं घुसने दिया गया। पुलिस मेनगेट पर खड़ी रही। कुलपति, रजिस्ट्रार और  चीफ प्रॉक्टर सभी नदारद थे। हद तो यह कि तीन घंटे बाद पुलिस कैम्पस में आई और वह भी सिर्फ खानापूर्ति के लिए। विद्यार्थी हॉस्टल शुल्क और अन्य वित्तीय भार में वृद्धि का विरोध कर रहे हैं। सरकार के हस्तक्षेप के बाद भी समस्या का हल नहीं निकला। तनाव के दौरान कुलपति को विद्यार्थियों से संवाद करना चाहिए था। संवाद से समस्याओं के समाधान की परम्परा रही है। आज कुलपति व अधिकारी संवाद क्यों नहीं करते हैं? इसी कमी से दरार गहरी हुई है। कुलपति तो तीन घंटे तक मौके पर ही नहीं आए।    नकाबपोश उपद्रवियों ने जो नारे लगाए उससे प्रतीत होता है कि यह सुनियोजित वारदात थी। एक नारा था - ‘गोली मारो सालों को’, ‘भारत माता की जय’। सोशल मीडिया पर ‘लेफ्ट टेरर डाऊन डाऊन’, ‘संघी गून्स मुर्दाबाद’, ‘दिल्ली पुलिस लठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं ’और देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’...जैसे नारे लगाए गए।  एेसे में प्रतीत होता है कि एबीवीपी और वाम व अन्य विद्यार्थी समूहों में तनाव और विस्फोटक स्थिति थी। इसका आभास पहले क्यों नहीं हुआ?  



 बीजेपी को भ्रम है जेएनयू नेहरू परिवार का गढ़ है। कांग्रेस की नीतियों का पोषक है। बीजेपी के नेतृत्व में नेहरू-गांधी परिवार के प्रति घृणा हो सकती है, परन्तु जेएनयू मे कभी भी इस परिवार के सदस्यों ने हस्तक्षेप नहीं किया। गृहमंत्री अमित शाह और पीएम नरेन्द्र मोदी को चुनावों में जेएनयू का दोहन नहीं करना चाहिए। चुनावी सभाओं में ‘टुकडे़-टुकडे़ गैंग’ और ‘अरबन नक्सलस’ की जगह जेएनयू की देन का उल्लेख करना चाहिए। हजारों विद्यार्थी विदेश सेवा और कूटनीतिक पदों पर हैं। हजारों विद्यार्थी प्रशासनिक, पुलिस, आयकर, कस्टम, रेलवे व अन्य सेवाओं में हैं। नेता, पत्रकार, एनजीओ कर्मी जेएनयू से जुड़े रहे हैं। वर्तमान सरकार में भी जेएनयू के विद्यार्थी मंत्री और सचिव हैं।  एक बाहरी हिन्दूवादी संगठन ने घटना को अंजाम दिया है। पुलिस की निष्क्रियता, वीसी की चुप्पी, और केन्द्र सरकार की लीपापोती से साफ है कि घटना सुनियोजित थी। एबीवीपी के संयुक्त सचिव ने भी कहा आक्रमणकारियों मे लाठी-डंडे लिये हुये उनके सदस्य थे। यह घटना कुलपति के कार्यकाल पर काला धब्बा है। इसका जवाब सरकार, पुलिस और वीसी को देना होगा।



दूसरी ओर...छात्र संघ अध्यक्ष 5 जनवरी की घटना से पहले के तथाकथित विवादों को लेकर केस दर्ज करना कहां का न्याय है। कुलपति का 7 जनवरी को यह कहना हास्यास्पद है कि दरवाजे संवाद के लिये खुले हैं और एक नई शुरूआत की जरूरत है। इन सब के बीच उम्मीद है कि जेएनयू थमेगी नहीं..बढ़ेगी ही। मैंने 2004 में सेवानिवृत्ति पर कहा था जेएनयू की एक आत्मा है, हमें उसे दृढ रखना है। (लेखक...आरयू के पूर्व वीसी और जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी के प्रो-चांसलर हैं)